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बहार का गीत

खोल गई मलयानिल दक्ख़िन का द्वार ।

आँगन में उन्मादी आ गई बहार ।।

वन – वन में नाच उठे मदमाते मोर,

कन-कन में जाग उठा जीवन का शोर ।

जन-जन के मानस में रस का संचार,

खोल गई मलयानिल दक्ख़िन का द्वार ।।

बौराये आमों पर कोकिल की तान,

झाड़ी के झुरमुट में चिड़ियों के गान ।

बाज रही बाँसुरिया खेतों के पार,

खोल गई मलयानिल दक्ख़िन का द्वार ।।

मुग्धा-सी सरसों ने बदला है ढंग,

बासन्ती चूनर में सज्जित है अंग ।

पहन लिए मटरों ने नीलम के हार,

खोल गई मलयानिल दक्ख़िन का द्वार ।।

काँटों में महक उठे भोर ही गुलाब,

जूही की कलियों पर आ गया शवाब ।

रस-लोभी मधुपों की टपक रही लार,

खोल गई मलयानिल दक्ख़िन का द्वार ।।

महुए ने खोली है मधुशाला आम,

कहता है, ‘पी जाओ मत देना दाम’ ।

पर अब तो बिन पीए छा गया ख़ुमार,

खोल गई मलयानिल दक्ख़िन का द्वार ।।

फूलों ने दावत का भेजा पैगाम,

मधुमक्खी ले जायें भर-भरकर जाम ।

मन जाए मनमाना मधु का त्यौहार,

खोल गई मलयानिल दक्ख़िन का द्वार ।।

छोड़ दिए दिनकर ने कुछ तीखे तीर,

पर्वत से भाग चला हिम बनकर नीर ।

साजन के गाँव चली नादिया की धार,

खोल गई मलयानिल दक्ख़िन का द्वार ।।

रसिया की थापों मस्ताना फाग,

गोरी की पायल में विरहा का राग ।

नयनों की खिड़की से झाँक उठा प्यार,

खोल गई मलयानिल दक्ख़िन का द्वार ।।

पर देखो उपवन में बोल रहा बाज़,

चिड़ियों पै झपटन को उद्यत है आज ।

खो जाय न क्रंदन में ऋतु का उपहार,

खोल गई मलयानिल दक्ख़िन का द्वार ।।

✍️ कवि – श्री मदन गोपाल सारस्वत