एक पाँव मैं चलूँ एक पाँव तुम चलो,
राह ज़िन्दगी की हमसे राह मान जाएगी ।।
रात हो अमा की या हो पूर्णिमा विभावरी,
शीत की बहार हो या हो रंगीला फागरी ।
दामिनी की हो दमक या मेघ-जल की धार री,
कोकिला की तान हो या सिंह की दहाड़ री ।
एक बार मैं हँसू एक बार तुम हँसो,
जेठ की दुपहरी भी बहार बनके आएगी ।।१।।
सिन्धु की गम्भीर लहर उठ रही पहाड़-सी,
ख़ौफ़नाक जन्तुओं की आ रही है बाढ़ सी ।
तीर का पता नहीं है नाव डगमगा रही,
दूर तलक पोत की ध्वजा नज़र न आ रही ।
एक डाँह मैं गहूँ एक डाँह तुम गहो,
टूटी नाव काठ की हमारी पार जाएगी ।।२।।
आँसुओं से ज़िन्दगी का मोल भी है कब चुका,
मीत कौन है यहाँ जो साथ देने को रुका ।
जिस किसी भी द्वार पर मैं आस बाँधकर गया,
पहुँचने से पहले ही दुआर बन्द हो गया ।
एक घूँट तुम पियो एक घूँट मैं पिऊँ,
यूँ ही करते करते भूख-प्यास मात खाएगी ।।३।।
एक जाम का यहाँ ईमान दाम हो गया,
हर बशर यहाँ तो स्वर्ण का ग़ुलाम हो गया ।
हर गली में साँस का गला यहाँ है घुट रहा,
दिन की रोशनी में कारवाँ यहाँ है लुट रहा ।
एक तान मैं भरूँ एक तान तुम भरो,
प्रीति की ये रागिनी नया विहान लाएगी ।।४।।
इस जगत की हाट में है अन्धकार घिर रहा,
जानवर के हाथ में है आदमी ही बिक रहा ।
हर बशर यहाँ तो सिर्फ़ बात अपनी कर रहा,
धायलों की चीख़ पर न कोई कान धर रहा ।
एक दीप मैं बनूँ एक दीप तुम बनो,
ज्योति इन बुझे हुए दियों को जगमगाएगी ।।५।।
✍️ कवि – श्री मदन गोपाल सारस्वत

