साहित्य और समाज का संबंध अत्यंत गहन, जीवन्त एवं परस्पर आश्रित रहा है। कहा गया है— “साहित्य समाज का दर्पण है”, और यह कथन केवल एक अलंकारिक उक्ति नहीं, अपितु एक सजीव सत्य है। समाज जैसा सोचता है, जैसा जीता है, जैसी पीड़ाओं और संभावनाओं से गुजरता है—साहित्य उसी का प्रतिबिंब बनकर सामने आता है।
साहित्य समाज को न केवल दिखाता है, बल्कि उसे समझने, प्रश्न करने और बदलने की चेतना भी प्रदान करता है।
समाज की सच्ची तस्वीर
इतिहास के प्रत्येक कालखण्ड में साहित्य ने समाज का वास्तविक चित्र प्रस्तुत किया है। चाहे वह प्रेमचंद का ग्रामीण भारत हो, निराला की पीड़ा हो, महादेवी वर्मा की संवेदना हो या आधुनिक समय की स्त्री, दलित एवं हाशिए की ध्वनियाँ —साहित्य ने समाज के उन पहलुओं को स्वर दिया है, जो सामान्यतया दृष्टिगोचर नहीं होता है।
साहित्य वह दर्पण है जिसमें समाज अपने सौंदर्य के साथ-साथ अपनी कुरूपताओं पर भी दृष्टिपात कर पाता है। यही कारण है कि सशक्त साहित्य कभी भी केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं रहता, अपितु वह असुविधाजनक प्रश्न भी उठाता है।
समय की चेतना का वाहक
प्रत्येक युग का साहित्य अपने समय की चेतना को स्वयं के भीतर समेटे रहता है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों की छाया साहित्य में स्पष्ट दिखाई देती है। जब समाज परिवर्तन के दौर से गुजरता है, तब साहित्य उसकी धड़कनों को शब्द देता है।
स्वतंत्रता आंदोलन के समय का साहित्य राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत था, वहीं आज का साहित्य वैश्वीकरण, तकनीक, पहचान और अकेलेपन जैसे विषयों से जूझता दिखाई देता है। इस प्रकार साहित्य समय का प्रलेख भी बन जाता है।
समाज को दिशा देने की भूमिका
साहित्य केवल प्रतिबिम्ब ही नहीं, अपितु वह दिशा निर्देशक भी है। वह मनुष्य की संवेदना को परिष्कृत करता है, विवेक को जाग्रत करता है और नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना करता है। अच्छे साहित्य के माध्यम से समाज आत्ममंथन करता है।
कविता, कहानी, नाटक और उपन्यास—सभी विधाएँ समाज को आत्मचिन्तन के लिए विवश करती हैं। कई बार एक कविता आंदोलन की चिंगारी बन जाती है, तो कभी एक कहानी सामाजिक सुधार की भूमिका निभाती है।
हाशिए की आवाज़ों का मंच
साहित्य की सबसे बड़ी शक्ति यह है कि वह उन आवाज़ों को स्थान देता है, जिन्हें समाज के मुख्यधारा विमर्श में स्थान नहीं मिला । स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और वंचित वर्गों की पीड़ा और संघर्ष साहित्य के माध्यम से सामने आते हैं।
इस प्रकार साहित्य केवल समाज का दर्पण नहीं रहता, अपितु वह सामाजिक न्याय और समानता की माँग का माध्यम भी बन जाता है।
साहित्य एवं रचनाकार का उत्तरदायित्व
यदि साहित्य समाज का दर्पण है, तो रचनाकार उसकी आँखें हैं। रचनाकार का दायित्व है कि वह सत्य को साहस के साथ प्रस्तुत करे—बिना भय और पक्षपात के। सतही लोकप्रियता से ऊपर उठकर जब साहित्य सत्य का सामना करता है, तभी वह समाज के लिए उपयोगी बनता है।
निष्कर्ष
साहित्य और समाज एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। समाज साहित्य को गढ़ता है और साहित्य समाज को दिशा देता है। जब समाज अंधकार की ओर बढ़ता है, तब साहित्य दीपक बनकर मार्ग दिखाता है।
अतः यह कहना सर्वथा उचित है कि साहित्य समाज का दर्पण है—एक ऐसा दर्पण जो केवल चेहरा नहीं दिखाता, अपितु आत्मा को भी पहचानने का अवसर देता है।
— मानसरोवर साहित्य

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