क्यों डरातीं मुझे आँधियों तुम भला,
यह परिश्रम तुम्हारा विफल जाएगा।
मैं हूँ पर्वत कोई तुच्छ बिरवा नहीं,
जो तुम्हारी चपेटों से हिल जाएगा।
बिजलियों की दहकती हुई चिनगियाँ,
नीड़ तक आते आते मेरे बुझ गयीं ।
जो चलीं थीं डुबाने मुझे वो लहर,
क़ाफ़िले के सहित तीर पर रुक गईं ।
ज़ोर कितना लगाए ज़माना मगर,
यह वह पन्थी नहीं जो भटक जाएगा ।
क्यों डरातीं मुझे आँधियों तुम भला,
यह परिश्रम तुम्हारा विफल जाएगा।
मैं करूँ तुमसे फूलों की क्यों कामना,
तुमने काँटे बिछाए सदा पन्थ पर ।
मैं करूँ प्यार की तुमसे क्यों याचना,
तीर तुमने चलाए सदा वक्ष पर ।
तुम भिखारी जनम के रहे फिर भला,
दान में मुझको तुमसे क्या मिल जाएगा?
क्यों डरातीं मुझे आँधियों तुम भला,
यह परिश्रम तुम्हारा विफल जाएगा।
तब तलक ही दिखालें ये जुगनू झलक,
जब तलक रैन का घोर अँधियार है ।
तब तलक ही सुनालें ये झींगुर झनक,
जब तलक मौन जगती का हुंकार है ।
ओ घटाओं तुम्हारा घटाटोप कब तक,
तरनि को गगन बीच ढक पाएगा ।
क्यों डरातीं मुझे आँधियों तुम भला,
यह परिश्रम तुम्हारा विफल जाएगा।
✍️ कवि – श्री मदन गोपाल सारस्वत

